अक्सर फांसी का फंदा पहने मरता यहां किसान है……

कोई बतलाये कैसे कह दूं मेरा देश महान है,
अक्सर फांसी का फंदा पहने मरता यहां किसान है।

तन घायल व्याकुल मन है जीने मरने की बात है,
बिन खाये दिन काट लिया पर अभी गुज़रनी रात है,
उस पर भी ये तेज़ हवाएं घाव कहाँ भरने देती,
मुश्किल से फूस बटोरे थे सर पे छत तो रहने देती,

छप्पर टूटा टूटी देहरी किस्मत में कहां मकान है,
अक्सर फांसी का फंदा पहने…………………।

सरकारी फरमानों की कुछ खबर न अबतक आई है,
चटकी तपती सूखी धरती बस नमीं आंख में छाई है,
टकटकी लगाए बैठा था इसबार वही फिर बात हुई,
अम्बर में बादल न छाए आंखों से फिर बरसात हुई,

बारिश में आंखें सूख गईं कहने को इनमे जान है,
अक्सर फांसी का फंदा पहने…………………..।

कुछ कर्ज़ की गिरती बूंदों से सूखे मन को आराम मिला,
फसल बेंच तो दी लेकिन न लागत का ही दाम मिला,
जख्मों पर लोन* लगा है अब कैसे भी इसे चुकाना है,
बच्चों को कैसे पढ़ा सके बिटिया का ब्याह कराना है,

फिर चिंता में इक चिता जली इक सूनी हुई मचान है,
अक्सर फांसी का फंदा पहने………………………।

© मोहित ‘विशेष’

( लोन – अवधी में नमक)

बड़ी अय्यारियों का खेल है खेला नहीं हमने…

बड़ी अय्यारियों का खेल है खेला नहीं हमने,
नसीहत दी बहुत है पर कभी झेला नहीं हमने।।

वो कहते जब दिलों की बात शब्दों से बयां न हो,
नया दिखता हो हर पल ख्वाब पर चेहरा नया न हो,
बड़ी चालाकियों से बात हो कोई टोक न पाए,
झलक पाने को तपती धूप भी जब रोक न पाए,

बड़ी दुश्वारियों का खेल है खेला नहीं हमने,
नसीहत दी बहुत है पर कभी झेला नहीं हमने।।

बुलाते रोज़ हो मिलने नए चुनकर बहाने जब,
है होती बात वादों की लगेंगे हम कमाने जब,
कभी है रूठ कर रोते कभी हंसकर मनाते हैं,
है शब की बात क्या जब ख्वाब दिन में भी सुलाते है,

बड़ी कठिनाइयों का खेल है खेला नहीं हमने,
नसीहत दी बहुत है पर कभी झेला नहीं हमने।।

गुजरता दिन नही आवाज़ कानों तक न पहुचे जब,
न कुछ अच्छा लगे है दिन महीनों से लगे है तब,
यादों से सजे जब आशियाँ में रात कटती हो,
उम्मीदें ख्वाब में बेचैन राहों पर भटकती हो,

बड़ी बेचैनियों का खेल है खेला नहीं हमने,
नसीहत दी बहुत है पर कभी झेला नहीं हमने।।

© मोहित ‘विशेष’

इक मैं होता इक तुम होते

काश हकीकत हम होते,
इक मैं होता इक तुम होते।।

होती एक घटा सुहानी सी,
और पवन बहे मस्तानी सी,
चिड़ियों की मस्ती साथ लिए,
एक सुबह खिले दीवानी सी,

अखबार में पन्ने कम होते,
इक मैं होता इक तुम होते।।

दुपहर न हो अलसाई सी,
सूखी सूखी मुरझाई सी,
सूरज सर चढ़कर यूँ उतरे,
जैसे ली हो जम्हाई सी,

दिन के कुछ घण्टे ग़ुम होते,
इक मैं होता इक तुम होते।।

फिर होती शाम दीवानी सी,
साइकिल की रेस पुरानी सी,
लुक्का छिप्पी पकड़ा पकड़ी,
घर से भागी बचकानी सी,

मास के दिन सब सम होते,
इक मैं होता इक तुम होते।।

चांदी सी चमचम प्यारी सी,
रैना होती उजियारी सी,
अम्बर में टिम टिम जुगनू हों,
छत तारों की फुलवारी सी,

हम ओस में घुलकर नम होते,
एक मैं होता एक तुम होते।।

© विशेष ‘मोहित’

भूल बैठे राष्ट्र डूबा अब नए एक त्रास में…

ढूंढते प्रश्नों का उत्तर देश के इतिहास में,
भूल बैठे राष्ट्र डूबा अब नए एक त्रास में।।

घूमते बेफिक्र रावण एक नई सीता को हरने,
क्या वजह खोये हैं अबतक रामजी वनवास में,
चीर खिंचता द्रौपदी का सब सभा में मौन हैं,
आज माधव ग़ुम कहीं वो मर गयी बस आस में,

जल रहे प्रह्लाद जलता अब वतन उपहास में,
भूल बैठे राष्ट्र डूबा अब नए एक त्रास में।।

बर्दाश्त की अब हद है टूटी हाथ खुद गांडीव लो,
पर पुष्टि करना न रहे कोई कमीं अभ्यास में,
खुद राम बन आगे बढ़ो हम जीत लेंगे फिर पुनः,
सागर में पत्थर तैरते यह शक्ति है विश्वास में,

इंसानियत अब मर गयी है द्वेष बढ़ता श्वास में,
भूल बैठे राष्ट्र डूबा अब नए एक त्रास में।।

ढूंढते प्रश्नों का उत्तर देश के इतिहास में,
भूल बैठे राष्ट्र डूबा अब नए एक त्रास में।।

© विशेष शुक्ल ‘मोहित’

हाँ, हमसे पहचानने में भूल हुई

सभी ने कहा था कि थोड़ा संभलना,
ये किस्से कहानी न इनसे मचलना,
माना भी हमने सुनी बात सबकी,
बताया था सबने चले उस डगर ही,

वो रास्ता डगर सब फ़िज़ूल हुई,
हाँ, हमसे पहचानने में भूल हुई..।।

जो दिल की सुनी तो उम्मीदों ने डाँटा,
जो अबतक था पूरा है हिस्सों में बाँटा,
मगर अब वो हिस्से भी गुम हो गए हैं,
वो ख्वाबों के तिनके कहीं खो गए हैं,

दिल की कोशिश उम्मीदों से धूल हुई,
हां, हमसे पहचानने में भूल हुई..।।

ख्वाबों का बक्सा बहुत ही बड़ा है,
मगर उसपे बरसों से ताला जड़ा है,
धुंआ है धुएं संग बहा जा रहा हूँ,
नही है पता कुछ कहाँ जा रहा हूँ,

राह फूलों की चलते ही शूल हुई,
हां, हमसे पहचानने में भूल हुई।।

जो बीता उसे अब नहीं याद करना,
सवालों के घेरों को है पार करना,
लहू आंख से अब बहाना पड़ेगा,
इरादों को पत्थर बनाना पड़ेगा,

स्वप्न शंकर नज़र अब त्रिशूल हुई,
हां, हमसे पहचानने में भूल हुई।।

© विशेष शुक्ल ‘मोहित’

जीवन समर

मन बहुत विचलित है कैसे राह ये चल पाऊंगा,
क्या भला मैं जीत खुद से इस समर में पाऊंगा।।

मस्तिष्क में सेना ये भारी द्वंद की चहुओर है,
पर निपुण मस्तिष्क ये किंचित नही कमज़ोर है,
व्यूह की रचना किये रण में खड़ा प्रतिपक्ष है,
अभिमन्यु मेरा चित्त उसको तोड़ने में दक्ष है,

द्वार अंतिम तोड़ क्या इस बार खुद ही पाऊंगा,
क्या भला मैं जीत खुद से इस समर में पाऊंगा।।

हो गया उद्घोष बजता शंख सब तैयार है,
शस्त्र से परिपूर्ण शत्रु का बड़ा आकार है,
सामने खुद युद्ध में खुद ही लिए हथियार मैं,
पर नहीं भयभीत हूँ हर शत्रु से तैयार मैं,

इस महाभारत का क्या मैं पार्थ अब बन पाऊंगा,
क्या भला मैं जीत खुद से इस समर में पाऊंगा।।

मन बहुत विचलित है कैसे राह ये चल पाऊंगा,
क्या भला मैं जीत खुदसे इस समर में पाऊंगा।।

© विशेष शुक्ल ‘मोहित’

बात करते हैं…।।

ज़माना कर रहा बातें तो हम भी बात करते हैं,
मुलाकातें शुरू करते है पूरी बात करते हैं।।

कहीं मिलती रहीं नज़रे कहीं ज़ज़्बात मिलते हैं,
नज़र में हर्फ़ तो हैं पर अधूरी बात करते हैं।।

दीवाना मैं नहीं हैं और भी मालूम है तुमको,
सितारे चाँद भी शब भर तुम्हारी बात करते हैं।।

बड़ी मुद्दत से जिसको ढूढ़ता था अब मिला मौका,
महकती रात है तुम हो ज़रूरी बात करते हैं।।

अभी टूटी है खामोशी हटाकर धूल एल्बम से,
अकेले में बुढ़ापा और जवानी बात करते हैं।।

सभी अच्छे बहाने हैं..।।

जो पूछे ही नहीं तुमने वही किस्से सुनाने हैं,
कई लिक्खे हैं खत में और कई मिलकर बताने हैं।।

मुमकिन है यहां सबकुछ अगर मिलना ही चाहो तो,
मगर मिलना ही न हो तो सभी अच्छे बहाने हैं।।

ठिकानों का असर कैसा तुम्हारा साथ हो शामिल,
कहीं भी रात गुज़रे फिर सभी अच्छे ठिकाने हैं।।

कि कुछ लोगो के कहने से अना में चूर बैठे हो,
बहुत से लोग शहरों में शहर मेरे दीवाने हैं।।

सभी यादें मिटा दी खुशबुएँ कपड़ों में है बाकी,
कई से उड़ गयीं पर कुछ अभी धोकर सुखाने हैं।।

© विशेष शुक्ल ‘मोहित’

चलो न….चाय पीते हैं।।

अभी कुछ दिनों से ही गर्मी बढ़ी है,
बढ़ी तो बढ़ी आज सर पर चढ़ी है,
समाधान की अब ज़रूरत है भारी,
हों किस्से कहानी हमारी तुम्हारी,

बैठ फिर आज सब वो, यहीं जीते हैं,
चलो न,,,,,,,,,,,,,,,,, चाय पीते हैं..।।

हो कॉलेज का झगड़ा या आफिस में लफड़ा,
मोहब्बत का मारा उदासी से जकड़ा,
या भूले मुसाफिर को रस्ता हो पाना,
न गर हो मिला कुछ तो गप्पें लड़ाना,

इस ठिकाने हल मसले, सभी होते हैं,
चलो न,,,,,,,,,,,,,,,,,, चाय पीते हैं…।।

हो ठंडक का मौसम या बारिश सुहानी,
सवेरे की निंदिया या रैना दीवानी,
हो छुटपन की पत्ती लड़कपन का पानी,
मोहब्बत की चीनी औ अदरक जवानी,

दूध की डोर ले फिर, इन्हें सीते हैं,
चलो न,,,,,,,,,,,,,,,, चाय पीते हैं…।।

© विशेष शुक्ल ‘मोहित’

तेरे भी सवालों का जवाब लिख दूंगा..

तेरे भी सवालों का जवाब लिख दूंगा,
जब अपने तवारीख की किताब लिख दूंगा।

वाज़िब है गर इल्ज़ाम ये सब के सब तेरे,
कलम उठा हर इक गुनाह का हिसाब लिख दूंगा।

मेरे जुनून की हद से तू अभी वाकिफ नहीं,
उठूंगा शब में फलक पे आफताब लिख दूंगा।

हूँ कायर मैं नहीं भेजो किसी भी जंग पर मुझको,
मैं जीतूंगा फतह का एक नया सैलाब लिख दूंगा।

गर तकदीर में मरना लिखा है डर नहीं मोहित,
मैं तदबीर से तकदीर को नायाब लिख दूंगा।

– विशेष शुक्ल ‘मोहित’